Tuesday, February 18, 2020

Old is Gold

बचपन की यादें 

पिछले दिनों मुझे अपने पिताजी के साथ उनके बचपन के दोस्त के घर जाने का मौका मिला। अवसर था उनके कुछ और बचपन के साथियों के साथ एक पारिवारिक मुलाकात। कुल 4 वयोवृद्ध व्यक्ति , उम्र लगभग 75 साल, दिल लगभग जवान, बातें लगभग लड़कपन की। जिनके घर हम गए उनका खुद का एक बड़ा सा फार्म हाउस है जहाँ चतुर्वेदी अंकल आजकल खुद अपने लड़के के साथ जैविक खेती करते हैं। थोड़ा ऊंचा सुनते हैं क्यों की बंदरों को भगाने के लिए एक बार बम फोड़ते हुए उनके एक कान का पर्दा फट गया था। तब से सिर्फ एक कान से सुनने की आदत सी पड़ गयी है। चतुर्वेदी अंकल कहते हैं जब उनको कोई बात अनसुनी करनी होती है तो वो उस कान को आगे कर देते हैं जिसमे कम सुनाई पड़ता है और जब कोई काम की बात सुननी होती है तो वो दूसरे कान को आगे कर देते हैं जिसमे साफ साफ सुनाई पड़ता है। है न मजे की बात ! काश हम भी इसी तरह से अपनी लाइफ में नेगेटिविटी को अपने से दूर रखने की कोई सार्थक प्रक्रिया खोज सकते। 

दुबे अंकल बाकि के तीनों में सबसे दुबले पतले और साधारण से सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। आज कल उनका ज्यादातर समय किताबें पढ़ने में निकलता है। वैसे भी किताबें मनुष्य की सबसे गहरी दोस्त होती हैं। किताबों से आदमी व्यस्त भी रहता है और ज्ञान भी मिलता है। शर्मा अंकल इन चारों में सबसे ज्यादा फिट दिखते हैं। बात करने का ढंग भी अलग है। बहुत मजाकिया हैं और काफी स्पष्ट बोलते हैं। इनकी बोली में अमेरिकन एक्सेंट है, क्यों की इनका ज्यादातर समय अमेरिका में बीता है। बच्चे भी विदेश में सेटल्ड हैं। यहाँ इनका भी खुद का एक फार्म हाउस है जहाँ हर 5-6 महीने में आते रहते हैं। विदेशी खेल जैसे गॉल्फ़ और घुड़ सवारी का शौक रखते है इसलिए अपने ही फार्म हाउस में एक छोटा सा गॉल्फ़ कोर्स बना रहे हैं। मेरे पापा कवि हैं , कविताएं और गानों का शौक है। हांलांकि चारों में स्मार्ट दीखते हैं पर डॉयबिटीज़ के कारण स्वास्थ्य बिगड़ गया है थोड़ा। पापा का सामजिक संपर्क अच्छा ही रहा है शुरू से। दोस्तों से मिलना ठहाके लगाना और खूब बातें करना पसंद है। उनकी वजह से ही मुझे ये मौका मिला की मैं उनके दोस्तों से मिल पाया वरना मैं पहले जाने के लिए मना कर रहा था।

घर पर नौकर चाकर लगे हैं खाने की तयारी के लिए, पर फिर भी मेरी मम्मी आदतन किचिन में चली गयीं ये देखने के लिए कि कोई मदद की ज़रुरत तो नहीं है चतुर्वेदी आंटी को। मम्मी की इस मदद करने की स्वाभाविक आदत को मैंने कई लोगों के मुख से कहते सुना है। शायद यही हमारे इस समाज के संस्कार हैं जो एक दूसरे की मदद करना सिखाते हैं। जब तक खाना बनता है हम सभी मर्द एक ड्राइंग रूम, जो कि डाइनिंग हॉल से लगा हुआ है, में इकठ्ठे बैठ कर बातें कर रहे हैं। सामने डाइनिंग हाल में टेबल पर मम्मी, चतुर्वेदी आंटी और शर्मा आंटी बैठ कर गप्पे मारती जा रही हैं और सलाद भी काट रही हैं। इतने में हमारे पास खेत से तोड़ी हुई शुद्ध देसी रसायन मुक्त हरी मटर आगयी। मटर आते ही सबने 'चरना' शुरू कर दिया। इतनी मीठी मटर सदियों बाद चखने को मिली होगी शायद। वाकई में खेत की देसी मटर खाने का मजा ही कुछ और है। सबका मु चल रहा है और सब अपनी अपनी सुना रहे हैं। कुछ देर में खाना तैयार हो कर टेबल पर लग गया और बेचारी मटरों की जान छूटी।

इन चारों को इकठ्ठे देख कर मैं भी सोच में पड़ गया कि आज से 35-40 साल बाद जब में अपने बचपन के दोस्तों से मिलूंगा तो क्या स्तिथि रहेगी मेरी ! क्या मुझे भी कम दिखने लगेगा या सुनाई कम पड़ेगा? क्या मैं भी धीरे धीरे सम्हल सम्हल के चलूँगा की कहीं गिर न पडूँ और किसी का हाँथ थाम लूंगा? क्या में भी सोच सोच कर पकवानों की तरफ बढूंगा की कहीं मेरा हाजमा न ख़राब हो जाये ? फिर एक बार लगा छोड़ो यार अभी तो ज़िन्दगी बहुत बाकी है अभी से क्या इतनी सारी बातें सोचना, और मैं अपनी थाली की तरफ टूट पड़ा। एक खाने की टेबल पर तरह तरह के पकवान सजाये हुए थे। देसी गाय के दूध से बनाया गया घी, उसी दूध की खीर और उसी दूध से बनाई गयी कढ़ी। ऊपर से और घी डालने से खाने का स्वाद और भी बढ़ रहा था। शायद यही है इस देश का शुद्ध देसी भोजन। शुद्ध सात्विक पूर्ण रूप से जैविक और प्रेम पूर्वक परोसा गया भोजन कहाँ मिलेगा? जैविक पकवान का स्वाद ही अलग होता है। हमने कुछ कच्ची हरी मटर भी खायी , इतना स्वाद उस मटर में मानों गुड़ मिला दिया हो। बड़ी जोर की भूख लगी थी और चतुर्वेदी अंकल ने भी जोर दे दे कर खूब 'जोर' खिलाया। उनके तरफ कढ़ी को 'जोर' बोलै जाता है। मैं मन ही मन सोच रहा था इतना जोर जोर से यदि मैं खाऊंगा तो कहीं ऐसा न हो की सुबह भी मुझे बहुत जोर लगानी पड़े! अक्सर घर में जब खाने की टेबल पर बैठो तो तरह तरह की नकारात्मक बातें हो जाती है लेकिन यहाँ सब ठहाके लगा लगा के खा रहे थे और इसलिए पता ही नहीं चल रहा था की कितना खाना खाये जा रहे थे। एक की जगह दो कटोरी खीर आराम से पेट में समा गयी और एहसास भी नहीं हुआ। साथ में अंकल के घर में पले हुए तीन बहुत ही मासूम से दिखने वाले से कुत्ते के बच्चे घूम रहे थे जो मनोरंजन का पूरा काम कर रहे थे। ऐसा एक बार भी नहीं लगा की यार दोपहर की न्यूज़ या कोई टीवी कार्यक्रम छूट गया जिसको हमने मन बहलाने के लिए खाने के साथ देखने का एक नियम सा बना लिया है।

अब बारी थी फार्म हाउस घूमने की। कहीं दूर दूर तक फूलों की खेती हो रही है तो कहीं हरे हरे लहलहाते गेहूं की फसल दिख रही है। कहीं पॉली हाउस में सैकड़ों की तादात में देसी खीरे की खेती है तो कहीं हरी धनिया और मिर्च की बुवाई चालू है। और इन सबको बराबर जैविक खाना मिले इसके लिए देसी गाय के गोबर से बानी खाद की भी व्यवस्था है। कुल मिला के शत प्रतिशत स्वावलम्बित जैविक खेती। एक प्रतिशत भी रसायन का स्तेमाल नहीं दिखा। आने वाले समय में जैविक खेती का सुनेहरा भविष्य है इसमें कोई दो राय नहीं। सैकड़ों किसान अब आधुनिक खेती को छोड़ कर परंपरागत जैविक खेती की तरफ मुड़ रहे हैं जिससे पशुपालन और पशु धन को भी बढ़ावा मिल रहा है। मेने भी ऐसे कई किसानों से मुलाक़ात की जो रासायनिक खेती छोड़ कर अब जैविक खेती कर रहे हैं और ऐसे भी किसान हैं जो पहले कॉर्पोरेट जगत में अच्छी खासी सैलरी में थे लेकिन अब वापस अपने घर - गाँव जा कर खेती में जीवन का सार और संतुष्टि मिलने से बेहद खुश हैं। सबसे बड़ी संतुष्टि है की अपने अपने परिवार और मिट्टी से जुड़े हुए हैं। बड़े शहरों में रहकर गुलामी भरी लाइफ स्टाइल से कहीं बेहतर दिखती है शुद्ध देसी लाइफ स्टाइल।

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