Wednesday, February 9, 2022

जासूसी

 जासूसी

बद्री बाबू आज बहुत दिनों के बाद घर आये हैं। अचानक इतने दिनों बाद उनको देख कर मैं भी अचंभित हूँ। 'आइये बद्री बाबू , आज बहुत दिनों के बाद आना हुआ क्या बात है आपकी तबियत तो ठीक रहती है न?' मैंने प्रश्न वाचक के साथ वार्तालाप शुरू की। 'हाँ हाँ मैं बिलकुल ठीक हूँ, बस यूँ ही कुछ समय से व्यस्त चल रहा था। आप सुनाइए मास्टर जी आप कैसे हैं?'  'मास्टर जी' उपनाम बद्री बाबू का ही दिया हुआ है। दरअसल मैं नगर निगम के कार्यालय में एक मामूली सा क्लर्क हूँ और बद्रीबाबू वहां के बाबू हैं लेकिन मेरी रूचि सामाजिक कार्यों और गतिविधियों पर ज्यादा होने की वजह से मुझे मास्टर जी बुलाने लगे। मेरी मुलाकात बद्री बाबू से यही कोई पांच वर्ष पहले तब हुई जब कार्यालय के काम के सिलसिले में मुझे बदरीनाथ मिश्रा उर्फ़ बद्री बाबू के पास जाना पड़ा  तब वे दूसरा कार्यालय सम्हालते थे। बदरीनाथ जी वैसे दिल के हैं तो बहुत अच्छे लेकिन जासूसी उनके दिमाग में घुसी हुई है। शायद जासूसी नॉवेल पढ़ पढ़ के ये हाल हुआ है। किस कार्यालय में क्या चल रहा है ये जानने का उनको बड़ा शौक रहता  है, और इससे इनका समय भी कट जाता है। बहरहाल पिछले ३ वर्षों से बद्रीनाथ मिश्रा जी हमारे ही कार्यालय में बाबू की हैसियत से कार्य कर रहे हैं और तभी से मेरी और उनकी अच्छी जमती भी है। कभी वो मेरे घर आ जाते हैं तो कभी मैं उनके घर चला जाता हूँ।

आज रविवार का दिन है खुशनुमा मौसम है मैं अपने छोटे से कमरे की तखत पर लेटा हुआ कुंदन लाल सहगल का गीत 'एक बंगला बने न्यारा' सुन रहा हूँ और रह रह कर मेरी निगाह ऊपर की दीवार के कोने में लगे हुए मकड़ी के जाले की तरफ जा रही है ! इतने में कमरे की घंटी बजती है और बदरीनाथ मिश्रा जी का आगमन होता है। उम्र ४९ साल ,कद लगभग ५ फ़ीट ८ इंच का होगा। चेहरा लम्बा हलकी सी दाढ़ी और मूंछ, बाल मध्यम आकार के और वजन लगभग ७० किलो का होगा। देखने में बदरीनाथ जी ठीक ठाक दिखते हैं। चूंकि बाबू हैं इसलिए लोग उनका थोड़ा ख़ौफ़ भी खाते हैं

'मस्टर तुम यहाँ गाने सुन रहे हो और बाहर क्या हो रहा है तुमको कुछ पता भी है ?' बदरीनाथ जी ने कुछ तीखे स्वर में पुछा। 'बाहर? बाहर भला ऐसा क्या हो गया जो मुझे मालूम होना चाहिए ?' मैंने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया। 'अरे मास्टर तुम भी न'  हाँथ में पकडे हुए झोले को एक किनारे रखते हुए बद्री बाबू तखत के बाजु वाली कुर्सी में अपनी तशरीफ़ टिका के बैठ गए। मैंने पान मंगवाने का इशारा किया और फिर पानी का गिलास थमाते हुए पूछा - 'हाँ तो आप क्या कह रहे थे बाहर क्या हो रहा है ?'  'मास्टर वो जो दो गली छोड़ के पानी की बड़ी टंकी है न उसके बाजु में एक पुरानी व्यायाम शाला है जहाँ अक्सर लड़के सुबह शाम कुश्ती सीखने और कसरत करने जाते हैं।मैंने कहा - 'हाँ वो तो मुझे मालूम है'  'पर तुमको ये नहीं मालूम की वहां कल रात चोरी के इरादे से कोई घुसा था लेकिन आश्चर्य की न तो व्यायाम शाला का ताला टूटा और न ही कोई और ही जगह है जहाँ से कोई घुस सके।' मैंने तपाक से पुछा - 'यदि ताला नहीं टूटा तो ये कैसे पता की कोई चोरी के इरादे से घुसा था?' ' अरे मास्टर वहां का सारा सामान अस्त व्यस्त था।' 'क्या कोई सामान चोरी भी हुआ?' ' नहीं कोई सामान चोरी नहीं हुआ पर कोई तो है जो घुसा था ?' 'अरे आप भी कहाँ की बातें ले कर बैठ गए , छोड़िये न चोरी चकारी की बातें। आपके लिए बढियाँ कलकतिया पान मंगवाया है। ' इतने में मैं बाबू के लिए चाय चढाने चला गया। वापस आकर देखा तो बाबू किसी उहा पोह में लगे हुए थे जैसे दसवीं की परीक्षा के सवाल का हल ढून्ढ रहे हों। 'बाबू क्या हुआ? अभी भी उस चोरी के बारे में सोच रहे हैं क्या?' मैंने आश्चर्य चकित मुद्रा में सवाल ठोक दिया। 'हाँ मास्टर मैं समझ नहीं पा रहा हूँ की यदि उस व्यायामशाला में आने जाने का एक ही रास्ता है जिसमे ताला डला हुआ है तो फिर आखिर चोर अंदर घुसा कैसे?'  'हो सकता है उसके पास डुप्लीकेट चाभी हो उसकी और वो आराम से ताला खोल के अंदर घुस गया हो और फिर आराम से बहार चला गया हो।' 'हाँ हो सकता है लेकिन जब चोरी के इरादे से घुसा था तो फिर उसने चोरी क्यों नहीं की?' ' अरे बाबू क्या पता उसका दिमाग आपके तरह तेज न चलता हो !' मैंने ताना देने के लहजे में बाबू के सामने गरमा गरम चाय का प्याला सरका दिया।  बाबू मेरी तरफ एक टक देख कर चाय की तरफ मु कर लिए और मैं मन ही मन मुस्कुरा कर रह गया।  'अच्छा बद्री बाबू आपको क्या लगता है क्या हुआ होगा ?' मैंने उनके मन की उत्सुकता और मेरी उस चोरी की तरफ नीरसता को भांप लिया और वार्तालाप को आगे धकेल दिया। कुर्सी से टांगें लम्बी करते हुए तखत के सहारे टिका कर बद्री बाबू आगे बोले- 'मुझे लगता है वो चोर बहुत ही शातिर है। उसने शायद उस वक्त व्यायाम शाला में घुसपैठ बनायीं जब वहां कोई नहीं था। संभवतः उसको बाहर निकलने का समय न मिला हो और दरवाजा रात में बंद कर के सब चले गए हों। और फिर जब सुबह दरवाजा खुला तो मौका पा के वो चम्पत हो गया इस डर से की कहीं रंगे हांथों पकडे न जाऊं। ' वाह बाबू आपका दिमाग तो चाचा चौधरी से भी तेज चलता है। ' मैं जोर से हंसने लगा। बाबू गंभीर होते हुए - 'अच्छा तो तू ही बता दे फिर क्या हुआ होगा?' ' अरे बाबू मैं क्या जानू, वो चोर जाने और उसका काम। ' ' अरे वाह ऐसे कैसे वो चोर जाने?, हम एक ज़िम्मेदार नागरिक हैं तो हमारा भी तो कोई फ़र्ज़ बनता है की नहीं ?' 'फ़र्ज़? अरे बाबू ये काम तो पुलिस का है , वो ढूंढेगी उस चोर को आप क्यों सर खपाते हैं अपना इसमें?'  'मास्टर यदि पुलिस इतनी ही मुश्तैद होती तो फिर बात ही क्या थी। खैर चलो चाय पीके थोड़ा टहल के आते हैं व्यायाम शाला तक। देखें तो ज़रा क्या हो रहा है वहां। मैं जब आज वहां से आ रहा था तो कुछ लोग इकठ्ठा खड़े थे। हो सकता है चोर का कुछ पता चला हो। ' बद्री बाबू ने मुझे जल्द से जल्द तैयार होने के लिए आँखों से इशारा किया। अब मैं भला उनकी बात कैसे टालूँ? एक तो छुट्टी का दिन, आराम से अपने तखत में लेट के कुंदन लाल सहगल का गाना सुन रहा था और अब ये मुसीबत। अब बद्रीनाथ नाम की ओखली में सर दिया है तो जासूसी नाम की मुसल से क्या डरना। मैं लपक के अंदर गया और एक सूती कुरता बदन पर डाल के आ गया। मुझे देख के बद्री बाबू ऐसे मुस्कुराये मानों उनकी बारात में जाने की तयारी हो रही हो ! पान की एक गिलौची मु में दबाये बद्री बाबू चले जा रहे थे और मैं बार बार मुड़के अपने दूर होते घर की तरफ देख रहा था मानों मन ही मन उसको सांत्वना दे रहा हूँ की मैं जल्द ही वापस आऊंगा और फिर तखत पर बैठ के सहगल जी को सुनूंगा।

हम व्यायाम शाला पहुंचे तो वहां पहले से मौजूद गुड्डन पहलवान, धोबी और दो चार लोग खड़े थे। बद्री बाबू ने पूछा - 'अरे गुड्डन भाई क्या हुआ चोर का कुछ पता चला क्या ?' ' नहीं बद्री बाबू अभी तक तो नहीं। पुलिस को भी नहीं बता सकते क्यों की चोरी तो कुछ गया नहीं सिर्फ सामान अस्त व्यस्त हुआ है। मानो चोर पहलवानी करने आया था और पहलवानी कर के चला गया। ' सब हंसने लगे।  मैंने भी अंदर जा के देखा तो व्यायाम करने का लगभग सारा सामान बिखरा पड़ा था। मुग्दल, डम्बल , रस्सा , लठ्ठ। मैंने गुड्डन से पूछा ' पहलवान जी आपको किसी पे शक है क्या ?' 'नहीं मास्टर जी किसी पे नहीं' और गुड्डन दूसरी तरफ मूं कर के कुल्ला करने लगा। मैंने धीरे से बद्री बाबू के कान में फुसफुसाया। 'बाबू मुझे तो ये पहलवान ही गड़बड़ लग रहा है। ' बाबू थोड़ा झेंप गए और मुझे चुप रहने को कह दिया।  कुछ देर वहां रुकने के बाद हम दोनों पनवारीलाला की दुकान से होते हुए किशोरी की होटल की तरफ हो लिए। 'अरे किशोरी दो गरमा गरम समोसे तो बना'  'अरे बद्री बाबू, आइये आइये, आज बड़े दिनों बात इस गली का रुख किया आपने।' किशोरी और बद्री बाबू पुराने परिचित हैं। बद्री बाबू अक्सर किशोरी की होटल में चाय और समोसे खाने आते रहे हैं। कभी कभी मैं भी उनके साथ आ जाया करता हूँ । आज देखना है की सिर्फ चाय मुफ्त की मिलेगी या समोसा भी, क्यों की अक्सर बद्रीबाबू सिर्फ चाय ही पिलाया करते हैं। न जाने आज समोसा कैसे खिला पाएंगे।

'अरे किशोरी वो पानी की टंकी वाली व्यायाम शाला की चोरी के बारे में कुछ खबर है तुमको ?' बद्री बाबू ने किशोरी को तहकीकात के अंदाज में पूछा , मनो ये खुद सी-आई-डी वाले हों। 'हाँ बाबू कुछ सुना तो है लेकिन अच्छे से मालूम नहीं। लोग बातें तो कर रहे थे। ' 'आपने क्या सुना बाबू ?'  किशोरी ने उल्टा प्रश्न पेल डाला। 'अरे मैं तो अभी वहीँ से आ रहा हूँ लेकिन कुछ निष्कर्ष नहीं निकला। खैर तू रहने दे , गरमा गरम दो चाय बना अदरक डाल के।' अब तक शाम के लगभग साढ़े पांच बज गए थे। हम दोनों चाय समोसा खा के घर की ओर चल दिए। घर पहुँच के बद्री बाबू बोले ' मास्टर मुझे लगता है हमको कमेटी बुलवानी चाहिए चोर को पकड़ने के लिए। आज व्यायामशाला में चोरी हुई है कल को तुम्हारे घर में भी हो सकती है। ' अरे शुभ शुभ बोलिये बद्री बाबू , मेरा ही घर मिला है आपको लुटवाने के लिए ?' मैने तपाक से पलट के प्रश्न दागा। 'तुम्हारे घर में वैसे भी है क्या ? एक टूटी फूटी अलमारी, कुछ कपडे , एक दो दर्जन किताबें और ये पुराना सा ट्रांसिस्टर। चोर आएगा भी तो अफ़सोस के अलावा कुछ न ले जा पायेगा।' इतना बोल के बद्री बाबू जोर जोर से हंसने लगे। मैं उनकी चुटकीली हंसी को बस घूरता रह गया। 

बद्री बाबू की धर्म पत्नी का स्वर्गवास हुए तीन साल बीत चुके हैं।  उनकी एक बेटी है जिसकी शादी बुरहानपुर जिले में एक सरकारी नौकरी वाले लड़के से कर दी है। अब बद्री बाबू अकेले ही घर पर रहते हैं। भोजन अच्छा बना लेते हैं। मैंने भी शादी नहीं की। माता पिता के गुज़र जाने के बाद दो बहनों की शादी करवाई और मैं भी अकेले ही रहने लगा। हम दोनों के अकेलेपन को दूर करने का यही तरीका रहता है। एक दूसरे के घर में धावा बोल के यहाँ वहां की बातें करना  और साथ में बैठ के भोजन करना। 'अरे मास्टर ये तो बताओ आज रात के भोजन में क्या बना रहे हो ?' मैं समझ गया की आज बद्री बाबू देर रात तक यहीं ठहरेंगे। वैसे उनके रहने से अच्छा ही लगता है लेकिन उनकी जासूसी की आदत कभी कभी बहुत झुंझला देती है।  'कुछ खास नहीं बाबू। बस सोच रहा हूँ आलू गोभी की रसीली सब्जी और रोटी बना लूँ। ' 'अरे तुम क्यों बनाओगे ? मैं तुम्हारी मदद करूँगा। तरकारी मैं काट दूंगा और आटा भी मैं ही लगा दूंगा।मानों बद्री बाबू ने बड़ा एहसान कर दिया मुझ पर।  'जैसा आप ठीक समझें बाबू। '

सामने उत्तर की तरफ की दीवार में टंगी लगभग १५ साल पुरनी घड़ी जिसके आस पास मकड़ी का जाला भी लगा था उसमे अब तक सात बज चुके थे। मैंने समय देखने के लिहाज से गर्दन घुमाई तो बद्री बाबू बोल पड़े - 'अरे समय न देखो मास्टर अभी तो पूरी रात बाकी है।' ' मतलब?' 'मतलब ये की तुमसे ढेर सारी बातें जो करनी है। ' अच्छा मैंने अनभिज्ञता के स्वर में जवाब दिया। 'अच्छा सुनो - तुमने गौर किया है उस व्यायाम शाला के पीछे एक खिड़की है जिसमे लोहे की सरिया लगी हुई है और जिसकी एक सरिया टूटी भी है। ' 'हाँ तो?' मैंने आश्चर्य भरे स्वर में बोला। 'मतलब ये कि हो सकता है की चोर उस खिड़की से अंदर आने की कोशिश कर रहा हो लेकिन फिर वो अंदर आ न सका और इस चक्कर में एक सरिया भी तोड़ डाली उसने। ' 'बद्री बाबू वो खिड़की मात्रा दो फुट की होगी और उस से चोर क्या कोई चूहा भी नहीं आ सकता ठीक से। आप भी न क्या क्या सोचते रहते हैं।' 'अच्छा तो बता की फिर चोर कहाँ से आया होगा अंदर?'  'मुझे क्या मालूम बाबू। मुझे तो लगता है कहीं आप मुझे ही न चोर घोषित कर दें कल सुबह तक। ' बद्री बाबू मेरी तरफ देखते रह गए।

हम दोनों ने स्वादिष्ट भोजन किया और फिर टहलने के लिए सड़क पर निकल पड़े। बद्री बाबू को टहलने और अपने स्वास्थ्य का ख़याला रखने का शौक था और मैं थोड़ा आलसी किस्म का व्यक्ति। पर फिर भी जब भी बद्री बाबू आते तो उनके साथ टहलने निकल जाता था। 'बाबू आप ठीक से तो हैं न घर पे। कोई तकलीफ या परेशानी तो नहीं आपको ?' 'क्यों रे मास्टर ऐसा क्यों पूछ रहा है ?' 'नहीं ऐसे ही बाबू मुझे कभी कभी आपकी फ़िक्र होती है' 'नहीं नहीं कोई दिक्कत नहीं मास्टर मैं बिलकुल ठीक हूँ।'  बद्री बाबू दिल के बहुत अच्छे इंसान हैं। वक्त की मार ने उनको अकेला कर दिया वार्ना जब तक उनकी धर्म पत्नी थी तब तक बहुत खयाल रखते थे उनका और परिवार का भी। उनके जाने के बाद बेचारे टूट गए। इसलिए मैं उनकी खबर लेता रहता हूँ। टहलते टहलते हम व्यायाम शाला तक कब जा पहुंचे पता ही नहीं चला। वहां एक छोटा सा बल्ब जल रहा था। हमने सोचा चलो जा के देखते हैं क्या पता कुछ सुराख मिल जाये। हम दोनों उस खिड़की के पास जा पहुंचे जिसकी एक सरिया टूटी हुई थी। बद्री बाबू तांक झाँक के इरादे से खिड़की से अंदर झाँकने लगे। मैंने उनसे कहा - 'अरे बाबू ऐसे मत झांको कोई देख लेगा तो उल्टा हमें ही चोर समझेगा। ' 'अरे कुछ नहीं होगा हम कोई चोर थोड़े ही हैं ' बाबू का जवाब सुन कर मैं चुप हो गया। मैं कुछ सोच ही रहा था की बद्री बाबू तपाक से उछल पड़े और बोले - 'मास्टर मास्टर वो देखो चोर' ' कहाँ कहाँ ' मैंने भी चिल्ला के पूछा। 'अरे वो देखो रेत की बोरी के पीछे कुछ हलचल दिख रही है जब मैंने ध्यांन से अपनी आँखें मल के देखा तो मुझे भी कुछ हिलता हुआ नज़र आया। एक बार तो मैं  डर गया की कहीं भूत प्रेत तो नहीं। फिर मेरे सात्विक मन ने मुझे समझाया 'अरे मास्टर भूत प्रेत देर रात में निकलते हैं रत को ९ बजे नहीं।' मैंने भी अंदर ही अंदर हामी भर दी। 'लेकिन बाबू वो क्या हो सकता है ?' 'शायद चोर वहां छुप के बैठा है बोरियों की आड़ में। ' मैंने भी सर हिलाया की हाँ हो सकता है ऐसा ही कुछ हो। 'बाबू चलो पुलिस को खबर करते हैं। ' 'अरे पुलिस से पहले गुड्डन पहलवान को खबर करते हैं वो दो चार पहलवानों को लाएगा और उस चोर की खुद ही मरम्मत कर देगा। तुम ऐसा करो यहीं रुक के चोर पे नजर रखो मैं दौड़ के गुड्डन को खबर करता हूँ।'  मेरे पास हामी भरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था क्यों की गुड्डन को बद्री बाबू ही अच्छे से जानते थे और मुझे उसका घर भी नहीं पता था। बद्री बाबू ऐसे दौड़ लगा के गए जैसे उनकी दूसरी शादी का रिश्ता आया हो घर में ! और यहाँ मेरी हालत पतली हो रही थी की कहीं चोर निकल के बहार न आ जाय और मेरा कीमा न बना दे। मैं मन ही मन में सोच रहा था कहीं चोर मुश्तैद पहलवान हुआ तो? या शायद छुरा चाकू रखा हो! मैं भगवन से प्रार्थना कर रहा था की जल्दी से दो चार पहलवानों को भेज दें। इतने में मैंने देखा कि बद्री बाबू के साथ गुड्डन पहलवान और उनके दो और शागिर्द चले आ रहे थे। मेरी तो जान में जान आयी। 'कहाँ है वो चोर अभी साले को देखता हूँ ' गुड्डन ने तमतमायी आँखों से मेरी तरफ देखा। मैंने भी इशारे से खिड़की के अंदर छुपे संभावित चोर की तरफ ऊँगली दिखाई। 'सुनो मैं जा के धीरे से दरवाजा खोलता हूँ और अंदर जा के देखता हूँ , तुम सभी दरवाजे के पास खड़े रहना ताकि चोर जब भागे तो उसको दबोच लो। ' सब ने हामी भर दी। लेकिन मेरी तो हालत ही ख़राब हो रही थी कहीं वो चोर मुझ पर न हमला कर दे। आखिरकार चोर का पता तो मैंने ही बताया था सबको और शरीर से देखा जाये तो सबसे सरल और संभावित शिकार मैं ही था उस चोर के लिए। गुड्डन धीरे से दरवाजा खोल के अंदर गया और हम सब दुबक के दरवाजे पर ही खड़े रहे। सबसे पहले उसने सामने की बोरी हटाई , फिर दूसरी और फिर तीसरी। कुछ नहीं दिखा उसको। 'कुछ दिखा क्या गुड्डन?' बद्री बाबू ने हिम्मत भरे स्वर में पूछा'  'नहीं कुछ नहीं' फिर पास में पड़े लोहे की जाली को सरकाया वहां भी कुछ नहीं था।  इतने में हम सब भी अंदर हो लिए की आखिर चोर गया कहाँ। 'मास्टर जी आपने अच्छे से तो देखा था न चोर को?' मैं और बद्री बाबू एक दूसरे का मू देखने लगे फिर बद्री बाबू बोले 'अरे हाँ हाँ मैंने भी तो देखा था वो बोरी हिल रही थी। वहीँ था चोर। 'वहीँ था तो फिर गया कहाँ?'  फिर गुड्डन ने आखिर में रखे हुए लकड़ी के दरवाजे को सरकाया तो तेजी से सरसराती हुई एक मोटी ताजी बिल्ली वहां से निकल के दरवाजे के रास्ते से बाहर की ओर भागी। गुड्डन भी उसके पीछे लपका लेकिन तब तक वो गायब हो चुकी थी। सब यहाँ वहां तितर बितर हो गए। 'अरे बद्री बाबू यही था क्या आपका चोर?'  बद्री बाबू को मानो सांप सूंघ गया हो। समझ नहीं पा रहे थे की चोर को समझने में उनसे गलती हो गयी या जासूसी कुछ ज्यादा ही सर पर चढ़ गयी थी। सब ठहाके मार मार के हंस रहे थे और बद्री बाबू खड़े खड़े अपना सर खुजा रहे थे।

Thursday, March 5, 2020

Blood Relation!

खूनी रिश्ता !

ये खून का रिश्ता होता ही गजब का है। परायों को अपना और अपनों को और भी अपना बना देता है।  वैसे तो खून का रंग लाल होता है और हर जीव में पाया जाता है लेकिन फिर भी हम प्रकृति की इस एकता की मिसाल को कभी समझ ही नहीं पाते और एक दूसरे से बैर करते रहते हैं। कभी जाती के नाम पर कभी धर्म के नाम पर कभी कर्म के नाम पर।

पिछले दिनों मुझे एक 'खून का रिश्ता' निभाने का मौका मिला। वक्त था एक गरीब परिवार के मज़दूर को खून देने का। वैसे तो मैंने पिछले तीन मौकों पर रक्त दान किया था लेकिन कभी ऐसा मौका नहीं आया की किसी गरीब को खून देना पड़ा हो। समय लगभग सुबह के 11 बजे का था मैं अपने काम में व्यस्त था तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी और एक स्वयं सेवी संस्था की तरफ से नितेश नाम के लड़के ने बात की - 'भैया यदि आप फ्री हों तो क्या आप सरकारी अस्पताल आ सकते हैं?' मैंने पूछा-  'क्या हुआ ?' - 'भैया एक गरीब आदमी है उसको पीलिया बिगड़ जाने की वजह से शरीर में खून की बहुत कमी हो गयी है और डॉक्टर ने उसे तुरंत खून चढाने की सलाह दी है , लेकिन इस वक्त यहाँ के ब्लड बैंक में बी पॉजिटिव ग्रुप का ब्लड नहीं है। 'मेने थोड़ी देर सोचा और फिर पुछा-  'तुम्हारे साथ और कौन कौन है ?' 'भैया एक अंकल हैं जो उस गरीब को लेकर यहाँ आये हैं और उसको भर्ती किये हैं।' मेने स्थिति की गंभीरता और मेरी उपस्थिति दोनों को समझा और उसकी मदद के लिए जाने का फैसला किया।

लगभग आधे घंटे में मैं सरकारी अस्पताल पहुंच चुका था। शायद 25 साल बाद मैं इस सरकारी अस्पताल में गया था और वहां की भीड़ और लोगों की तकलीफ से भरे हुए चेहरों को देख के फिर से भारत में गरीबी के आंकड़ों का एक सैलाब मेरी आँखों के सामने आगया। दर्द से कराहते हुए, गरीबी की बोझ तले दबे हुए, असहाय से अबोध चेहरे मेरे सामने थे। कोई ज़मीन में बैठा था, कोई स्ट्रेचर में अपने इलाज के शुरू होने के इंतज़ार में लेटा था, कोई अपनों को दरवाजे के सहारे टिका कर  काउंटर से पर्ची बनवा रहा था तो कोई अपने हाँथ में ग्लूकोज़ की बोतल उठाये नर्स के आने के इंतज़ार में आँखें बिछाये बैठा था। मानों सब के सब किसी 'सामूहिक स्वास्थ्य भंडारे' में शामिल होने आये हों और सबको यकीन हो कि उनके हाँथ कुछ न कुछ तो आ ही जाएगा।

बहरहाल मैं तेजी से ब्लड बैंक की तरफ भागा जहाँ मेरा इंतज़ार 'खून चूसक यंत्र' के साथ अस्पताल का स्टाफ इंतज़ार कर रहा था। मेने उस मरीज़ का हाल चाल पूछा तो पता चला की वो भर्ती करा दिया गया है और जल्द से जल्द खून चढ़ना है। मैं कुछ औपचारिकता पूरी करने के बाद सामने रखी ब्लड डोनेशन चेयर पर जा कर बैठ गया। मेरे आस्तीन को ऊपर कर के स्ट्रिप बाँधी गयी और फिर बड़ी बेरहमी से एक मोटी सी सुई मेरी उभरी हुई लहलहाती नस में घुसेड़ दी गयी ! 'आराम से मैडम !' मैंने सामने खड़ी नर्स को अपने जीवित होने, और 'मर्द को भी दर्द होता है', का एहसास दिलाया। मेरा खून उस थैली में, जिसकी एक छोर मेरी नसों से जुड़ी थी, ऐसी तेजी से बहना शुरू हुआ मानो बाँध के खुलने से पानी बह रहा हो! मन ही मन मैं सोच रहा था कैसी विडम्बना है की जिस खून के प्यासे कुछ लोग ज़िन्दगी भर रहते हैं और बड़ी बेरहमी से किसी की जान तक ले लेते हैं उसी खून की आवश्यकता किसी इंसान को जीवन देने में कितनी अधिक होती है। आज तक इस देश में जितने भी बेगुनाहों का लाखों लीटर खून बहा है यदि वे जीवित होते तो उसका सदुपयोग आज दुनिया भर के लाखों लोगों को नया जीवन देने में हो सकता था। रक्त दान के बाद मैंने सोचा की उस गरीब आदमी से भी मिल के आना चाहिए जिसको खून की आवश्यकता है। मैं पुरुष वार्ड में गया तो देखा उस आदमी का पूरा चेहरा पीला पड़ा हुआ था। हाँथ पैर किसी कुपोषित बच्चे के सामान बेहद पतले थे। मुझे आत्म संतोष हुआ की मेरा खून किसी के काम तो आया और मन ही मन प्रार्थना किया की ईश्वर इसे जल्द से जल्द स्वस्थ करें।

दो दिन के बाद मुझे लगा की मैं फिर से एक बार उस गरीब को देख आऊं की उसकी स्थिति कैसी है। जब मैं  उसके पास पहुंचा तो वो मुझे देखते ही तुरंत बिस्तर पर बैठ गया और मुस्कुराने लगा जबकि उसको एक बोतल खून उस वक्त चढ़ रहा था। मैंने उसे आराम से लेटे रहने को कहा और हाल चाल पूछा। मुझे ये जान कर बहुत ख़ुशी हुई की उसकी स्थिति पहले से सुधर रही है और अब वो अच्छा महसूस कर रहा है। फिर उसने मुझे बताया की ये तीसरी बोतल खून है जो इस वख उसको चढ़ रहा है। फिर बोला - 'भैया जो आपने खून दिया था वो मुझे सबसे पहले चढ़ाया गया है परसों के दिन। ' ये सुन के मुझे जो ख़ुशी हुई वो अद्भुद थी। मैं उस व्यक्ति के सामने खड़ा था जिसकी नसों में मेरा खून दौड़ रहा था! वाह क्या बात है ! ये कोई अहंकार के भाव नहीं थे बल्कि अद्भुद आत्म संतुष्टि के भाव थे। मेरी रगों का खून किसी के जीवन को बचाने में काम आये ये एक अलग ही एहसास था। मैंने जाते जाते उससे उसकी ज़रुरत के सामान या खाने पीने की चीज़ों की जानकारी ली और फिर वहां से मन में संतोष और प्रसन्नता का भाव लेकर चला गया।

काश हम सब मिलके इस खून के रिश्ते को निभा सकें और हमेशा एक दुसरे से प्रेम और सेवा का भाव रख सकें।

Tuesday, February 18, 2020

Old is Gold

बचपन की यादें 

पिछले दिनों मुझे अपने पिताजी के साथ उनके बचपन के दोस्त के घर जाने का मौका मिला। अवसर था उनके कुछ और बचपन के साथियों के साथ एक पारिवारिक मुलाकात। कुल 4 वयोवृद्ध व्यक्ति , उम्र लगभग 75 साल, दिल लगभग जवान, बातें लगभग लड़कपन की। जिनके घर हम गए उनका खुद का एक बड़ा सा फार्म हाउस है जहाँ चतुर्वेदी अंकल आजकल खुद अपने लड़के के साथ जैविक खेती करते हैं। थोड़ा ऊंचा सुनते हैं क्यों की बंदरों को भगाने के लिए एक बार बम फोड़ते हुए उनके एक कान का पर्दा फट गया था। तब से सिर्फ एक कान से सुनने की आदत सी पड़ गयी है। चतुर्वेदी अंकल कहते हैं जब उनको कोई बात अनसुनी करनी होती है तो वो उस कान को आगे कर देते हैं जिसमे कम सुनाई पड़ता है और जब कोई काम की बात सुननी होती है तो वो दूसरे कान को आगे कर देते हैं जिसमे साफ साफ सुनाई पड़ता है। है न मजे की बात ! काश हम भी इसी तरह से अपनी लाइफ में नेगेटिविटी को अपने से दूर रखने की कोई सार्थक प्रक्रिया खोज सकते। 

दुबे अंकल बाकि के तीनों में सबसे दुबले पतले और साधारण से सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। आज कल उनका ज्यादातर समय किताबें पढ़ने में निकलता है। वैसे भी किताबें मनुष्य की सबसे गहरी दोस्त होती हैं। किताबों से आदमी व्यस्त भी रहता है और ज्ञान भी मिलता है। शर्मा अंकल इन चारों में सबसे ज्यादा फिट दिखते हैं। बात करने का ढंग भी अलग है। बहुत मजाकिया हैं और काफी स्पष्ट बोलते हैं। इनकी बोली में अमेरिकन एक्सेंट है, क्यों की इनका ज्यादातर समय अमेरिका में बीता है। बच्चे भी विदेश में सेटल्ड हैं। यहाँ इनका भी खुद का एक फार्म हाउस है जहाँ हर 5-6 महीने में आते रहते हैं। विदेशी खेल जैसे गॉल्फ़ और घुड़ सवारी का शौक रखते है इसलिए अपने ही फार्म हाउस में एक छोटा सा गॉल्फ़ कोर्स बना रहे हैं। मेरे पापा कवि हैं , कविताएं और गानों का शौक है। हांलांकि चारों में स्मार्ट दीखते हैं पर डॉयबिटीज़ के कारण स्वास्थ्य बिगड़ गया है थोड़ा। पापा का सामजिक संपर्क अच्छा ही रहा है शुरू से। दोस्तों से मिलना ठहाके लगाना और खूब बातें करना पसंद है। उनकी वजह से ही मुझे ये मौका मिला की मैं उनके दोस्तों से मिल पाया वरना मैं पहले जाने के लिए मना कर रहा था।

घर पर नौकर चाकर लगे हैं खाने की तयारी के लिए, पर फिर भी मेरी मम्मी आदतन किचिन में चली गयीं ये देखने के लिए कि कोई मदद की ज़रुरत तो नहीं है चतुर्वेदी आंटी को। मम्मी की इस मदद करने की स्वाभाविक आदत को मैंने कई लोगों के मुख से कहते सुना है। शायद यही हमारे इस समाज के संस्कार हैं जो एक दूसरे की मदद करना सिखाते हैं। जब तक खाना बनता है हम सभी मर्द एक ड्राइंग रूम, जो कि डाइनिंग हॉल से लगा हुआ है, में इकठ्ठे बैठ कर बातें कर रहे हैं। सामने डाइनिंग हाल में टेबल पर मम्मी, चतुर्वेदी आंटी और शर्मा आंटी बैठ कर गप्पे मारती जा रही हैं और सलाद भी काट रही हैं। इतने में हमारे पास खेत से तोड़ी हुई शुद्ध देसी रसायन मुक्त हरी मटर आगयी। मटर आते ही सबने 'चरना' शुरू कर दिया। इतनी मीठी मटर सदियों बाद चखने को मिली होगी शायद। वाकई में खेत की देसी मटर खाने का मजा ही कुछ और है। सबका मु चल रहा है और सब अपनी अपनी सुना रहे हैं। कुछ देर में खाना तैयार हो कर टेबल पर लग गया और बेचारी मटरों की जान छूटी।

इन चारों को इकठ्ठे देख कर मैं भी सोच में पड़ गया कि आज से 35-40 साल बाद जब में अपने बचपन के दोस्तों से मिलूंगा तो क्या स्तिथि रहेगी मेरी ! क्या मुझे भी कम दिखने लगेगा या सुनाई कम पड़ेगा? क्या मैं भी धीरे धीरे सम्हल सम्हल के चलूँगा की कहीं गिर न पडूँ और किसी का हाँथ थाम लूंगा? क्या में भी सोच सोच कर पकवानों की तरफ बढूंगा की कहीं मेरा हाजमा न ख़राब हो जाये ? फिर एक बार लगा छोड़ो यार अभी तो ज़िन्दगी बहुत बाकी है अभी से क्या इतनी सारी बातें सोचना, और मैं अपनी थाली की तरफ टूट पड़ा। एक खाने की टेबल पर तरह तरह के पकवान सजाये हुए थे। देसी गाय के दूध से बनाया गया घी, उसी दूध की खीर और उसी दूध से बनाई गयी कढ़ी। ऊपर से और घी डालने से खाने का स्वाद और भी बढ़ रहा था। शायद यही है इस देश का शुद्ध देसी भोजन। शुद्ध सात्विक पूर्ण रूप से जैविक और प्रेम पूर्वक परोसा गया भोजन कहाँ मिलेगा? जैविक पकवान का स्वाद ही अलग होता है। हमने कुछ कच्ची हरी मटर भी खायी , इतना स्वाद उस मटर में मानों गुड़ मिला दिया हो। बड़ी जोर की भूख लगी थी और चतुर्वेदी अंकल ने भी जोर दे दे कर खूब 'जोर' खिलाया। उनके तरफ कढ़ी को 'जोर' बोलै जाता है। मैं मन ही मन सोच रहा था इतना जोर जोर से यदि मैं खाऊंगा तो कहीं ऐसा न हो की सुबह भी मुझे बहुत जोर लगानी पड़े! अक्सर घर में जब खाने की टेबल पर बैठो तो तरह तरह की नकारात्मक बातें हो जाती है लेकिन यहाँ सब ठहाके लगा लगा के खा रहे थे और इसलिए पता ही नहीं चल रहा था की कितना खाना खाये जा रहे थे। एक की जगह दो कटोरी खीर आराम से पेट में समा गयी और एहसास भी नहीं हुआ। साथ में अंकल के घर में पले हुए तीन बहुत ही मासूम से दिखने वाले से कुत्ते के बच्चे घूम रहे थे जो मनोरंजन का पूरा काम कर रहे थे। ऐसा एक बार भी नहीं लगा की यार दोपहर की न्यूज़ या कोई टीवी कार्यक्रम छूट गया जिसको हमने मन बहलाने के लिए खाने के साथ देखने का एक नियम सा बना लिया है।

अब बारी थी फार्म हाउस घूमने की। कहीं दूर दूर तक फूलों की खेती हो रही है तो कहीं हरे हरे लहलहाते गेहूं की फसल दिख रही है। कहीं पॉली हाउस में सैकड़ों की तादात में देसी खीरे की खेती है तो कहीं हरी धनिया और मिर्च की बुवाई चालू है। और इन सबको बराबर जैविक खाना मिले इसके लिए देसी गाय के गोबर से बानी खाद की भी व्यवस्था है। कुल मिला के शत प्रतिशत स्वावलम्बित जैविक खेती। एक प्रतिशत भी रसायन का स्तेमाल नहीं दिखा। आने वाले समय में जैविक खेती का सुनेहरा भविष्य है इसमें कोई दो राय नहीं। सैकड़ों किसान अब आधुनिक खेती को छोड़ कर परंपरागत जैविक खेती की तरफ मुड़ रहे हैं जिससे पशुपालन और पशु धन को भी बढ़ावा मिल रहा है। मेने भी ऐसे कई किसानों से मुलाक़ात की जो रासायनिक खेती छोड़ कर अब जैविक खेती कर रहे हैं और ऐसे भी किसान हैं जो पहले कॉर्पोरेट जगत में अच्छी खासी सैलरी में थे लेकिन अब वापस अपने घर - गाँव जा कर खेती में जीवन का सार और संतुष्टि मिलने से बेहद खुश हैं। सबसे बड़ी संतुष्टि है की अपने अपने परिवार और मिट्टी से जुड़े हुए हैं। बड़े शहरों में रहकर गुलामी भरी लाइफ स्टाइल से कहीं बेहतर दिखती है शुद्ध देसी लाइफ स्टाइल।

Thursday, February 13, 2020

Show some humanity towards animals!


My encounter with death!

Last year I was visiting Bhopal, Madhya Pradesh to attend a three-day event. While I was crossing a narrow lane near to the event venue I saw a Cow lying on the floor near to a house in a dead posture. I thought she was dead and I overlooked heading to my destination. Next day early morning when I was walking down the same lane to explore the nearby places and take a regular morning walk; I got shocked to see the same cow lying just a few feet away from the earlier spot barely breathing. The most shocking part for me to realise that the last night it rained heavily with a chilled cold throughout the night where this innocent animal was lying the whole day and night under the open sky. It took no time for me to think about how she could have survived in such a cold and rainy night! 

By the time it was 6:30 in the morning with fog around. I went near to her to examine if she was OK. I saw her clearly, she was putting hell lot of effort to breath. I touched her neck and felt how it was difficult for her to survive. I looked closely with her entire body; her legs, tail, stomach, hands, ears everything was just immovable as if dead. I understood that cold might have hit harder and she could not bear it but she was still breathing. It was an abandoned plot between two houses where the surface was very wet and bushes had grown up. I asked the lady of the house where she was lying before 'How did she come here and what happened to her?' She replied ' I don't have any idea about this. I saw her fainted near to our house but no one helped her and then someone dragged her to the side of the house'. 'Someone dragged her'? I asked. 'How can someone drag her if she was not well?' 'Didn't anyone try to call the veterinary doctor to examine her?'. 'Bhaiya no one cares about an animal. They all talk about them and their welfare but who cares? Especially the stray animals'. I asked her 'Since how long is she lying here?' 'She is here for the last 3 days' she said. 'What! last 3 days and no one bothered to take care of her? Man! this is damn shocking'. 

Immediately I took my cell phone and started searching for the veterinary hospital in the town. By the time it was around 8 o'clock. I found a few numbers and rang them but as always most of them were not working and those which were working dint get picked up. Finally, I spoke to a doctor who was earlier posted in the hospital. He gave me another number to call. I called up that number and after a long try got connected to him. 'Hello, am I speaking to the Doctor?' 'Yes what's the concern' 'Sir, I am in need of your help to rescue a stray cow fighting for her life lying in this abandoned place. I am new to this place but if you can help, I can try to bring her in an auto-rickshaw to get her treated'. 'Yes you can bring her but you will not be allowed to leave her here as we don't have any facility to keep any animals here'. I thanked him for the time and started talking to the near-by locals. 

No one was taking an interest in talking to me as everyone became spectators. Finally, I asked a local vendor who was about to open his shop just a few feet away from the lying cow. 'Bhai, since how long this cow is here and why no one has rescued her so far?' He replied 'She is lying for the last three days we called municipal people. They came and dragged her to the side.' I asked him 'why didn't you call the doctor?' 'Bhaiya we are traders and how can I alone do this? Everyone should do this.' He replied to me. I started thinking deeply about how inhuman we all have become. We need pure milk, ghee, butter, curd, cow dung etc but when the giver of all these is dying then there is no one to rescue her because no one wants to take responsibility. Why would one bother to call the doctor to help her? Why would one bother to take her to the hospital? Let her die, who cares.

One auto-rickshaw was passing by. I stopped him and asked if he was ready to help me. He also denied. I was completely helpless watching this innocent beautiful animal dying every second. I could realize how painful it was for her to even breath. It again started raining and I rushed into the shed. It rained heavily for the next few hours. I waited to let the rain stop and again try to rescue her. I went to the same spot again after around two and a half hours when rain stopped completely but not to my surprise her 'well-wishers' standing around her looking at her, she was dead! And her well-wishers were none other than other cows. I just encountered the death! I was thinking how animals can understand other animal's pain when they still don't have a developed brain as we human have. And we, so-called humans can't even show our emotions towards animals because we are more developed!


Friday, July 2, 2010